काव्यानुवाद – Poetry Translation

शिव तांडव स्तोत्रम् [श्लोक १७] व्याख्या

The following is an explanation of the Shloka # 17 (and the last) of the Shiva Tandava Stotram.

पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं
यः शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरंगयुक्तां
लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भु ।। १७ ।।

इति श्रीरावणकृतं  शिवताण्डवस्तोत्रं  सम्पूर्णम् ।

पूजावसानसमये पूजा + अवसान + समये +
दशवक्त्रगीतं दशवक्त्रः + गीतं
पूजा = पूजन
अवसान = समापन
समये = के समय
दशवक्त्रः = दशानन, रावण
गीतं = स्तोत्र गीत
दशवक्त्रगीतं = रावण द्वारा रचित (स्तोत्र) गीत
यः शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे
यः = जो कोई
शम्भुपूजनपरं = शिव की पूजा करने वाला,  शिव-पूजा-प्रवण
पठति = पढ़ता है
प्रदोषे = संध्या के समय
तस्य स्थिरां तस्य स्थिरां
रथगजेन्द्रतुरंगयुक्तां रथः + गजेन्द्रः + तुरङ्गः + युक्तां
तस्य = उसे (यहाँ छठी विभक्ति लगती है, इसलिए ‘तस्य’ है )
स्थिरा = स्थिर रहने वाली
रथः = वाहन
गजेन्द्रः = गजराज, उत्तम हाथी
तुरङ्गः = घोडा
युक्तां = युक्त, सहित
रथगजेन्द्रतुरंगयुक्तां = उत्तम हाथी-घोड़ों से युक्त रथ
लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भु
लक्ष्मीं = श्री, वैभव
सदैव = सदा
सुमुखी = सुन्दर मुख वाली
प्रददाति = प्रदान करते हैं
शम्भुः = शिवजी

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व्याख्या

Goddess Laxmi‘शिवताण्डवस्तोत्रम्’ के १७ वें और अन्तिम श्लोक में रावण इस श्लोक का माहात्म्य बताते हुए कहता है कि संध्या के समय पूजा के अनन्तर इस शिवभक्तिमय स्तोत्र  का पाठ जो कोई शिव-पूजा-प्रवण जन करता है, उस भक्त को शिवजी श्रेष्ठ हाथी-घोड़ों से युक्त रथ तथा सदा स्थिर रहने वाली, शुभानना लक्ष्मी अर्थात विपुल वैभव प्रदान करते हैं ।

‘शिवताण्डवस्तोत्रम्’ रावण द्वारा रचित, श्रद्धा और भक्तिभाव से समन्वित एक उत्कृष्ट रचना है । स्तोत्र शब्द ‘स्तु’ धातु से बना है । स्तोत्र के लिए कहा गया है – “प्रतिगीतमंत्रसाध्यं  स्तोत्रम्” । किसी देवता का छन्दोबद्ध स्वरूप-वर्णन अथवा गुणकथन या स्तवन स्तोत्र कहलाता है ।  वैदिक साहित्य में स्तोत्र-रचना की एक आस्थामयी, सुदृढ़ परम्परा रही है । वैदिक साहित्य वस्तुतः स्तुतिपरक है । ऋग्वेद में स्तवन-मूलक मन्त्र आये हैं और इसके भी स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि समवेत स्वर में इन ऋचाओं का गान होता था । वैदिक संहिताओं में प्रायः देवों के प्रति स्तोम ही संगृहीत हैं । सामगान के अंतर्गत स्तुतिपरक छंदों को स्तोम कहा गया है । इनमें प्रमुख देवों की स्तुतियाँ प्राप्त होती हैं, जिनमें अपने आराध्य की, इष्टदेव की, आशंसा-प्रशंसा एवं उनकी अनुकम्पा की अभ्यर्थना की गई है । कहीं-कहीं आराधक भावोद्रेक में अपनी दैन्य-दशा भी व्यक्त करते हैं व अपनी व्यथा-कथा भी सुनाते हैं । यह क्रम आज भी दोहों, विनय के पदों, भजन आदि के रूपमें बना हुआ है ।

राक्षसेन्द्र रावण के व्यक्तित्व में एक निर्भीक धृति थी । उसके स्तोत्र में कहीं भी दैन्य के दर्शन नहीं होते, हाँ, महादेव की महिमा से मनोमुग्ध, वह साध्वस-वश यह अवश्य कहता है – “क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि” (ऐसी ही किसी दिगंबर-सी वस्तु  में मेरा मन रमा रहे) और अपने ऐसे दिगंबर भूतनाथ का सतत व सत्वर सानिध्य-लाभ पाने की बलवती आकांक्षा उससे कहलवाती है – “शिवेति  मन्त्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्य्हम्” (शिवमंत्र का जाप करते हुए मैं कब सुख का भाजन बनूँगा) ! प्रस्तुत श्लोक में रावण भगवान भोलेनाथ की दातव्य-शक्ति एवं प्रकृति का गुणानुवाद करते हुए कहता है कि प्रदोषकाल में, अर्थात संध्या के समय, पूजा संपन्न करने के बाद, जो भी व्यक्ति दशानन-कृत इस शिव-प्रवण या शिव-भक्तिमय स्तोत्र का पाठ करेगा, शम्भु उसे श्रेष्ठ हाथी-घोड़ों से संयुक्त रथ तथा सदा स्थिर रहने वाली, शुभानना  लक्ष्मी प्रदान करेंगे । तात्पर्य यह है कि वह व्यक्ति शिवजी की अनुकम्पा से अक्षुण्ण और अथाह सम्पदा का स्वामी बनेगा । देवी लक्ष्मी जल की तरंगमाला की तरह चंचल होती है, अतः स्थिर रहने वाली लक्ष्मी का प्रदान करने में उनके गौरव का विस्तार है ।

शिवजी को अवढर दानी या औढरदानी कहते  हैं । भक्तमनरंजन भूतभावन प्रसन्न हो जाएँ तो क्या कुछ अपने भक्त को नहीं दे देते ?  रावण ने पिनाकपाणि की कृपा से प्रचंड पराक्रम व प्रतिभा प्राप्त की थी, शस्त्र भी प्राप्त किये और फिर त्रिभुवन की श्री अर्जित की । वह उनका भक्त भी था और शिष्य भी । अतएव समापन श्लोक में वह कहता है:

तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरंगयुक्तां
लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भु ।।

राजभवन के द्वारों पर, ड्योढियों पर झूमते, मतवाले,चिंघाड़ते हाथी, हिनहिनाते द्रुतगामी, बलिष्ठ घोड़े व उनसे संयुक्त रथ अपने स्वामी की समृद्धि का वृत्तांत स्वयं सुनाते हैं ।  हाथी राजसी  ठाठ-बाट, पराक्रम, वैभव व गौरव के प्रतीक हैं और अश्व बलिष्ठता, गत्यात्मकता, स्वामिनिष्ठा एवं मार्गों को पहचानने व उन्हें स्मरण रखने की अद्भुत क्षमता के प्रतीक हैं । गजराज अपनी शुण्ड (सूंड) में जल भर कर उसके शीकर से पद्महस्ता, पद्मिनी महालक्ष्मी का अभिषेक करते हैं । भगवान भाल-भूषण द्वारा भक्त को यह सब प्रदान किये जाने से अभिप्राय भक्त को अकूत और अक्षुण्ण सम्पदा प्रदान करने से है, इसीलिए लक्ष्मी को शुभ मुख वाली तथा स्थिरा कहा ।

mahalakshmiवाल्मीकि रामायण में महर्षि वाल्मीकि ने रावण को कुछ स्थलों पर ‘महात्मा’ भी कहा है । यहाँ ‘महात्मा’ शब्द का अर्थ साधु-बाबा नहीं, जैसा कि आजकल समझ जाता है । महात्मा अर्थात् महान आत्मा वाला, यद्यपि गोस्वामी तुलसीदास व अन्य भक्त कवि ऐसा नहीं समझते । किन्तु महर्षि की ऋषि-दृष्टि – निष्पक्ष दृष्टि ने रावण में महान आत्मा के दर्शन किये । वस्तुतः ‘शिवताण्डवस्तोत्रम्’ शिवभक्ति की अजस्र भावधारा प्रवाहित करता है । शिव की ताण्डव-चेतना से अनुप्राणित यह स्तोत्र दशानन की अपने आराध्य के प्रति अनन्य निष्ठा का वाहक है ।

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श्रीरावण द्वारा रचित शिवताण्डवस्तोत्रम् समाप्त ।

इति श्रीशिवार्पणमस्तु ।

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This entry was published on September 10, 2014 at 11:35 pm. It’s filed under Shloka Explanation, Tandav Stotram and tagged , , , , . Bookmark the permalink. Follow any comments here with the RSS feed for this post.

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