काव्यानुवाद – Poetry Translation

शिव तांडव स्तोत्रम् [श्लोक १३] व्याख्या

The following is an explanation of the Shloka # 13 of the Shiva Tandava Stotram.

कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुंजकोटरे वसन्
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन् ।
विलोललोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेति मन्त्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्य्हम् ।। १३ ।।

निलिम्पनिर्झरी निलिंपनिर्झरी +
निकुंजकोटरे निकुंज + कोटरे
कदा = कब
निलिंपनिर्झरी = देवनदी यानि गंगा
निकुंज = उपवन
कोटरे = गृह में, पर्णशाला
वसन् = रहता हुआ
विमुक्तदुर्मतिः विमुक्त + दुर्मतिः
शिरःस्थमंजलिं शिरः + स्थं + अञ्जलिं
विमुक्त = छोड़ी हुई
दुर्मतिः
= दुबुद्धि
सदा = हमेंशा
शिरःस्थं = माथे पर रखी हुई
अञ्जलिं = दोनों खुली हथेलियों से बनाया हुआ करसंपुट
वहन् = उठाये हुए
विलोललोललोचनो विलोललोल + लोचनो
ललामभाललग्नकः ललाम + भाल + लग्नकः
विलोललोल = चंचल, अति चंचल, चंचल-लोलुप
लोचनो = लोचनः = नयन
विलोललोललोचनो = चंचल-लोलुप नेत्रों वाला
ललाम = सुन्दर, आभूषण
भाल = माथा
लग्नकः = शुभांकित, तिलकांकित
शिवेति मन्त्रमुच्चरन् शिव + इति + मन्त्रं + उच्च्ररन्
भवाम्य्हम् भवामि + अहम्
शिवेति = शिव (ऐसा)
मन्त्रं = मन्त्र
उच्चरन् = उच्चारते हुए
कदा = कब
भवामि = बनूँगा
अहम् = मैं

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व्याख्या

‘शिवताण्डवस्तोत्रम्’ के १३ वें श्लोक में स्तुतिकार रावण अविरल प्रेमयुक्त तरल-सरल भावों के साथ अपने मन की साध को प्रकट करता है । भाव-भीने मन से, खोया हुआ-सा वह सोचता है कि गंगाजी के तट के निकट किसी कुञ्ज-कुटीर में वास करता हुआ मैं कब दुर्बुद्धि से मुक्त होऊंगा । कब अपने करों की अंजलि माथे से लगा कर, चंचल-अधीर नेत्रों तथा तिलकांकित ललाट वाला मैं, शिव-मन्त्र का उच्चार करने का सुख पाऊंगा ? ऐसा सुख मुझे कब लब्ध होगा ?
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प्रस्तुत श्लोक इस तथ्य की ओर इंगित करता है कि आसुरी वृत्तियों के शिथिल अथवा विनष्ट हो जाने से शुभ विचारों का मन में आना स्वाभाविक हो जाता है और ऐसी स्थिति में यह सोच भी अवश्यम्भावी हो जाती है कि दुष्ट वृत्तियां उभर कर मन-बुद्धि को दूषित व उद्वेलित न करने पाएं । कुछ ऐसी ही सोच से प्रेरित रावण के मन में संजोई हुई साध अभिव्यक्ति की सतह पर तिरती हुए दिखाई देती है । वह सोचने लगता है कि न जाने कब मुझे भुवन-वन्द्या सुरतटिनी के तट के निकट वास करने का सुयोग प्राप्त हो, गंगा के कछार में वहीं कहीं, कूल के कुञ्ज-कानन में बस जाऊं, वृक्षों के झुरमुट बीच लताच्छादित किसी पर्ण-कुटीर में मेरा निवास हो तथा प्रतिदिन सादर मस्तक से अंजलि लगा कर मैं उन्हें अर्पण करूँ । मेरी दुष्ट बुद्धि न जाने कब मुझे विचलित करना छोड़ेगी । और ये चंचल नेत्र, क्या करूँ इनका, ये कब चलायमान होना छोड़ेंगे । कब आयेगा वह शुभ दिन जब मेरे भाल पर होगा त्रिपुण्ड्र तिलक तथा जिह्वा पर होगा भगवान शिव का नाम । उनके मंत्रोच्चार के साथ उनकी आराधना कर सुखी हो जाऊं, ऐसा न जाने कब होगा ।

Apsaraरावण द्वारा ‘निलिम्पनिर्झरीनिकुंजकोटरे’ कहना ध्यातव्य है । भारतीय संस्कृति में जल व जलाशयों की महत्ता पुरातन काल से स्वीकार की जाती रही है । वेदों में पानी को ‘विश्वभेषजं’ कहा गया है, अर्थात् जल में समस्त औषधियां समाहित हैं । नदी, निर्झर, सरोवर, कूप, कासार, जलाशय आदि हमारी संस्कृति के अभिन्न अंग रहे हैं । उस पर भी देव अथवा देवस्थानों से सम्बद्ध नदियों की महिमा तो अतुलनीय व अवर्णनीय है । उनमें स्नान ,तर्पण, दीपदान करना व उनके तटों पर कथा, व्याख्यान, दान, ध्यान और धार्मिक संस्कारों व अनुष्ठानों का आयोजन अत्यधिक पुण्यदायी माना जाता है । ‘स्कन्द पुराण’ में ‘पुष्करिणी’ में स्नान करने के विषय में पुराणकार का कथन है कि जिसने सहस्रों वर्षों का पुण्य अर्जित किया हो, वही पुष्करिणी में स्नान का सौभाग्य प्राप्त करता है । यहाँ स्नान कर के सद्य मुक्ति होती है । गोस्वामी तुलसीदास रामचरित मानस में सरयू नदी को नमन करते हुए उसे पाप नाशिनी नदी बताते हैं -“सरजू सरि कलि कलुष नसावनि”। आर्य संस्कृति नदियों के तटों पर फली, फूली और बढ़ी है । बड़े बड़े प्राचीन नगर नदियों के तटों पर ही समृद्ध हुए । जैसे सरयू के तट पर अयोध्या, क्षिप्रा-तट पर उज्जयिनी, गंगा और शोण नदी के संगम पर पाटलिपुत्र, त्रिवेणी-तट पर प्रयाग, यमुना-तट पर मथुरा । पंजाब तो सप्तसिंधु प्रान्त कहलाया ही । सहस्रनामों से पवित्र नदियों का स्तवन गया जाता है । नदी, जलाशयों में स्नान करने के कई नियम ऋषियों ने बनाये, विधि-निषेध भी बताये, उन्हें स्वच्छ रखने के उपदेश दिये । नदियों की तो बात ही क्या है, घर ही में स्नान करते समय पवित्र नदियों के नाम-स्मरण की हमारे यहाँ पवित्र परम्परा है । जैसे,

गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति।
नर्मदे सिंधु कावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु।।25kumbh5अर्थात् हे गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु, कावेरी नदियों ! (मेरे स्नान करने के) इस जल में (आप सभी) पधारिये । एक अन्य श्लोक भी बहुधा स्नान करते समय बोला जाता है, जो इस प्रकार है ।

गंगा सिंधु सरस्वती च यमुना गोदावरी नर्मदा
कावेरी सरयू महेन्द्रतनया चर्मण्यवती वेदिका।
क्षिप्रा वेत्रवती महासुरनदी ख्याता जया गण्डकी
पूर्णाः पूर्णजलैः समुद्रसहिताः कुर्वन्तु मे मंगलम् ।।

इस श्लोक का अर्थ भी यही है कि उपर्युक्त सभी जल से परिपूर्ण नदियां, समुद्र सहित मेरा कल्याण करें । गंगा की महिमा तो वर्णनातीत है । उसे प्रणाम कर अपना जीवन सार्थक करने की परंपरा अति प्राचीन है ।

नमामि गंगे ! तव पादपंकजं
सुरसुरैर्वन्दितदिव्यरूपम् ।
भुक्तिं च मुक्तिं च ददासि नित्यम्
भावानुसारेण सदा नराणाम् ।।

अर्थात् हे गंगाजी ! मैं देव व दैत्यों द्वारा पूजित आपके दिव्य पादपद्मों को प्रणाम करता हूँ । आप मनुष्यों को सदा उनके भावानुसार भोग एवं मोक्ष प्रदान करती हैं । यही नहीं, स्नान के समय गंगाजी के १२ नामों वाला यह श्लोक भी बोला जाता है, जिसमें गंगाजी का यह वचन निहित हैं कि स्नान के समय कोई मेरा जहाँ जहाँ भी स्मरण करेगा, मैं वहाँ के जल में आ जाऊँगी ।

नंदिनी नलिनी सीता मालती च महापगा ।
विष्णुपादाब्जसम्भूता गंगा त्रिपथगामिनी ।।
भागीरथी भोगवती जाह्नवी त्रिदशेश्वरी ।
द्वादशैतानि नामानि यत्र यत्र जलाशये ।।
स्नानोद्यतः स्मरेन्नित्यं तत्र तत्र वसाम्यहम् ।।

— (आचारप्रकाश, आचारेन्दु, पृ़ .४५)

साधारण कूप, बावडी व अन्य जलाशयों के अलावा अन्य पवित्र नदियों के जल में भी गंगा के आवाहन को आवश्यक माना गया है । ‘स्कन्द पुराण’ का कथन है,

स्नानकालेऽश्रन्यतीर्थेषु जप्यते जाह्नवी जनैः ।
विना विष्णुपदीं कान्यत् समर्था ह्यघशोधने।

इसका अर्थ यह है कि अन्य तीर्थों में स्नान करते समय भी गंगा का नाम ही लोग जपा करते हैं , गंगा के बिना अन्य कौन पाप धोने में समर्थ है? अग्निपुराण के मतानुसार तीर्थ के जल से गंगाजल का जल अधिक श्रेष्ठ है , “तीर्थतोयं ततः पुण्यं गंगातोयं ततोsधिकम्”। सहस्र नामों से पवित्र देवापगा गंगा के स्तवन गाये जाते हैं ,तथा अपने अघ-मर्षण की अभ्यर्थना की जाती है, दूध,गंध, धूप, दीप, पुष्प ,माल्य आदि से पूजा-अर्चना की जाती है । गंगा के भू पर अवतरण की तिथि पर गंग-दशहरा मनाया जाता है व स्नान-पुण्य आदि करके श्रद्धालु जन स्वयं को पवित्र करते हैं ।

ज्येष्ठ मास उजियारी दशमी, मंगलवार को गंग
अवतरी मैया मकरवाहिनी, दुग्ध-से उजले अंग

परमेश्वरी भागीरथी के तीर पर किसी भी भांति रहने का सुयोग मिले , ऐसी अभिलाषा महर्षि वाल्मीकि ने भी ‘श्रीगङ्गाष्टकम्’ में व्यक्त की है। उनके शब्दों में,

त्वत्तीरे तरुकोटारान्तर्गतो गंगे विहंगो वरं
त्वन्नीरे नरकान्तकारिणि वरं मत्स्योsथवा कच्छपः ।

ganges_over_shivaमहर्षि गंगाजी से कहते हैं कि हे गंगे ! तुम्हारे तीर पर स्थित तरु के कोटर में रहने वाला विहंग बनना वरदायी है , हे नरक का अंत करने वाली ! तुम्हारे जल में मछली अथवा कछुआ बन कर रहना भी वरदायी है । भगवती भागीरथी का महिमा-गान हमारे आर्ष-ग्रंथों ने मुक्त-कंठ से किया है । इसी ‘मदनमथनमौलेर्मालतीपुष्पमाला (यह नाम ‘गंगाष्टकम् ‘ में है ) गंगा के तटवर्ती प्रांत के कुञ्ज-उपवन में वास करने का भावमय मनोरथ शिवभक्त रावण करता है । वहां ऊंची अट्टालिकाओं वाला सौध बना कर नहीं अपितु कहीं निकुंज-कोटर में रह कर शिवाराधन करना चाहता है । अपने मन का कल्मष-कालुष्य सब मिटा कर, सद्बुद्धि ग्रहण कर वह सर पर सादर अंजलि धर कर शिवार्चन का सुख पाना चाहता है । एक शिव-परायण भक्त ही की भांति चंचल-नेत्र, चलित-चक्शु रावण भी अपने माथे को त्रिपुण्ड्र से भूषित करने की कामना करते हुए सोचता है कि यह सब कर पाने का सौभाग्य मैं कब पाऊंगा उसे इस क्रिया-कलाप में, शिवमंत्र के उच्चार में सुख ही सुख की प्रतीति होती है ।

अमित ऐश्वर्य और अपार शक्ति के स्वामी रावण ने देवताओं, bhagirathग्रहों को बंदी बना लिया था, त्रिलोकी में उसके लिए कोई भी इच्छित पदार्थ दुर्लभ नहीं था। भक्त लेखक श्री सुदर्शनसिंह ‘चक्र’ अपने उपन्यास ‘पलक झपकते’ में रावण के लिये लिखते हैं ,”त्रेता में दशग्रीव प्रबल हुआ तो उसने जलाधीश वरुण को ही लंका की सिंचाई-स्वच्छता में नियुक्त कर दिया ।” ऐसा अमित वीर्य-विक्रम एवं सप्तद्वीपाधिपति पंक्तिग्रीव (दशग्रीव) किस सुख की प्राप्ति हेतु उत्कंठित है, यह प्रश्न स्वतः मन में उठता है । वस्तुतः उसके पिता विश्रवा मुनि के सद्संस्कारों का आकर्षण प्रबल है, जो उसे मथते हैं । भगवान महाकपाली, चन्द्रशेखर से जब वह अपनी सम्पदा, अपनी श्री की रक्षा की अभ्यर्थना करता है, तब भी उस सम्पदा का अटूट भाग होता है उसका हृदयस्थ भक्तिभाव, जिसे वह कदापि खोना नहीं चाहता। अपनी आस्था के ऐश्वर्य से दिनानुदिन व अधिकाधिक समृद्ध होना उसका श्रेय और प्रेय है । रावण का मन शिव के नाम से उपराम नहीं होना चाहता । अतः जहाँ शिव के चरण पखारती देवापगा गंगा प्रवाहित हो रही हो ,वहीँ उसकी सुख-स्थली है । वहीँ मानो उसका भक्ति-पूत मन कैलाशपति के पुण्य-पादपद्मों को अपने प्रेमाश्रुओं से सिक्त करने के लिए विकल है । नेत्रों से झरते मुक्ताओं से उनके पद चर्चित कर, अपने अंतःकालुष्य से निवृत्त होना चाहता है राक्षस-शार्दूल रावण । वह उच्च कोटि का विद्वान था व उसे भलीभांति विज्ञ था कि लक्ष्मी जल की तरंगमाला की तरह चपल है, अतएव मन में भक्ति रूप से निवास करने वाली श्री की उसे स्पृहा है, जिससे उसे अपने प्रिय कैलाशविहारी का सानिध्य सुलभ हो । यही सानिध्य, यही सौलभ्य, यही सौख्य उसका काम्य है ।

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This entry was published on September 1, 2014 at 2:28 am. It’s filed under Shloka Explanation, Tandav Stotram and tagged , . Bookmark the permalink. Follow any comments here with the RSS feed for this post.

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